सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

रावण के जन्म की कथा Ramayan (Ramayan hi kiyu or koi kiu naam nahi) P10

 


{रावण के जन्म की कथा}

NEXT PART.10

     
                                BUY ON AMAZON                           BUY ON AMAZON

......................................................................................................................................................


देव और दैत्य आपस में सौतेले भाई थे
और निरंतर झगडते आ रहे हैं। महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति से देव और दिति से दैत्य जन्म लिये। दिति की गलत शिक्षाओं का नतीजा और अदिति के पुत्रों से अपने संतान को आगे बनाने की होड़ में दैत्य गलत दिशा में चले गये और  देवताओं के कट्टर शत्रु बन गये। युगों तक लडते रहे, कभी दैत्य तो कभी देवताओं का पलड़ा भारी रहता था। दोनों देव और दानव तपस्या करते थे, दान पुण्य आदि श्रेष्ठ कर्म करते थे। कभी ब्रह्मा जी से तो कभी महादेव से वर प्राप्त करते थे  और फिर एक ही काम एक दूसरे को नीचा दिखाना। निरंतर लडाई - झगड़े से देवता दुखी हो गये ।

तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की, कि वो कुछ करें। ब्रह्मा जी ने देवताओं को सागर मंथन की बात कह और उससे अमृत प्राप्त होने की बात बतलाई जिसे देवता पी लें, तो वो दानवों के हाथ मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे। और साथ में यह भी कहा कि सागर मंथन आसान नहीं है उसमें दानवों को भी शामिल करो और युक्ति पूर्वक अमृत को प्राप्त करो। दानवों को सम्मिलित करने के कारण हैं, एक तो इतना बडा काम अकेले और गुप्त तरीके से कर नहीं सकोगे, क्युँकि दानवों को पता चल जाएगा और दूसरा इसमें श्रम बहुत लगेगा। ब्रह्मा जी की बात पर तब युक्ति पूर्वक देवताओं ने दानवों को सागर मंथन मिलकर करने की बात के लिये राजी किया और दानवों को सागर से बहुत से रत्न निकलने की बात कही, लेकिन अमृत की बात नहीं बतलाई ।

दानव सहमत हो गये और फिर उन्होंने कहा भाई पहले ही इस बात को तय कर लो कि पहला रत्न निकला तो कौन लेगा, दूसरा किसका होगा, ताकि बाद में वाद - विवाद न हो। देवता थोड़़े घबराये कि, कहीं पहली बार में अमृत निकल गया और दानवों के हाथ लगा गया तो ? लेकिन फिर भगवान को मन-ही-मन नमस्कार कर उन्होंने विश्वास किया कि भगवान उनका कल्याण अवश्य करंगे। और तय हो गया कि पहला रत्न निकलेगा, वो दानवों को, दूसरा देवताओं को और फिर इसी प्रकार से क्रम चलता रहेगा।

मंथन के लिये रस्सी का काम करने के लिये देवताओं ने सर्पों के राजा वासुकी से प्रार्थना की और उसे भी रत्नों में भाग देने की बात कही गई। वासुकी नहीं माना। उसने कहा कि रत्न लेकर वो क्या करेगा ? फिर देवताओं ने अलग से उसे समझाया और अमृत में हिस्सा देने कि बात कही, तब वो तैयार हुआ। सुमेरु पर्वत से प्रार्थना की गई। उसको को मथनी बनने के लिये मनाया गया।

सब तैयारी पूर्ण होने के बाद तय किये मापदंडों पर नियत दिन में सागर मंथन हुआ। लेकिन जैसे ही मंदराचल पर्वत को समुद्र में उतारा गया, वो अपने भार के बल से सीधा सागर की गहराइयों में डूब गया और अपना घमंड प्रदर्शित किया। तब असुरों में बाणासुर इतना शक्तिशाली था कि उसने मंदराचल पर्वत को अकेले ही अपनी एक हजार भुजाओं में उठा लिया और सागर से बाहर ले आया। इससे मंदराचल का अभिमान नष्ट हो गया। देव और दानवों के पराक्रम से खुश हो और ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर, भगवान श्री नारायण ने कच्छ्प अवतार लिया और पर्वत को अपनी पीठ पर रखा। सागर मंथन शुरु हुआ।

सागर-मंथन और देव-दानवों का पराक्रम देखने स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सप्त ऋषि, आदि अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। सागर-मंथन शुरु होने के बहुत दिनों के बाद सबसे पहले हलाहल विष निकला, जिसके जहर से देव, दानव और तीनों लोकों के प्राणी, वनस्पति आदि मूर्छित होने लगे। तब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की।

श्री विष्णु ने कहा कि इससे रुद्र ही बचा सकते हैं। तब भगवान रुद्र ने वो जहर पी लिया। लेकिन गले से नीचे नहीं उतरने दिया। हलाहल विष से उनका कंठ नीला हो गया, जिसके बाद से ही वे देवाधिदेव महादेव कहलाए और गला नीला पड़ जाने के कारण नीलकंठ नाम से जाने और पूजे गये।

पुन: मंथन शुरु हुआ। भगवान शंकर के मस्तक पर विष के प्रभाव से गर्मी होने लगी। तब मंथन के समय ही चंद्रमा ने अपने एक अंश से सागर में प्रवेश किया और साथ में शीतलता लिये हुए बाल रूप में प्रकट होकर महादेव की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान शिव उसके इस भक्ति-भाव पर बहुत प्रसन्न हुए और उसे हमेशा के लिये अपने मस्तक पर बाल चंद्र के रूप में शीतलता प्रदान करने के लिये सुशोभित कर दिया।

फिर रत्न रूप में कामधेनु गाय निकली, जो दानवों के भाग की थी। इसे उन्होंने बिना गुण विचारे सोचा कि गाय का हम क्या करेंगे और उस गाय को सप्त्ऋषीयों को दान में दे दिया। अब बारी थी, देवताओं की। लेकिन रत्न में प्रकट हुई महालक्ष्मी। देवताओं और दानवों ने उनकी स्तुति की और सागर ने अपने एक अंश से प्रकट होकर महालक्ष्मी जी को भगवान विष्णु को कन्यादान किया और वो श्री विष्णु के वाम भाग में विराजमान हो गईं।

फिर ऐरावत हाथी देवताओं के भाग में आया। इसके बाद कौस्तुभ मणी और अन्य रत्न निकले। तब दानवों के भाग में उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा आया, जो वेद मंत्रों से भगवान की स्तुति करने लगा। इसे दानवों ने अभिमान पूर्वक देवताओं को दे दिया। वे बोले - "रख लो, वेद बोलने वाला तुम्हारे ही काम आएगा। हमें इसकी जरुरत नहीं है।" फिर मदिरा निकली, जो दानवों के भाग की थी और वो उसे पा के और पी के बहुत प्रसन्न हो गये। दानव मदिरा पान से बहुत आनंदित हो गये थे और जब नशा थोड़ा कम हुआ तो पुन: मंथन शुरु किया।

इसके बाद देवताओं की बारी थी। और अमृत कलश के साथ भगवान के अंशावतार श्री धनवंतरि अवतरित हुए। लेकिन दानवों को लगा शायद इसमें भी मदिरा हो तो वो बलपूर्वक उस कलश को लेने की कोशिश करने लगे। बढ़ते झगड़े को निपटाने के लिये श्री नारायण ने पुन: समुद्र से ही मोहिनी रूप में अंशावतार लिया। सभी देव और दानवों ने मोहिनी को रत्नरुपी देवी जानकर प्रणाम किया।

तब मोहिनी ने कहा कि, "आप लोग झगड़ा क्युँ कर रहे हैं ?" और जब कारण जाना तो उसने कहा कि "आप लोगों द्वारा ही तय नियमानुसार, यह कलश तो वैसे देवताओं को मिलना चाहिये, लेकिन फिर भी यदि तुम चाहो तो मैं आप सभी में कलश के द्रव्य को बाँट कर आपका विवाद समाप्त कर देती हूँ।" देवता समझ गये कि भगवान हैं और उनकी सहायता के लिये आए हैं। अत: सबने मोहिनी के मीठे वचनों को मान लिया।

मोहिनी ने सभी को कहा कि वो पंक्ति में बैठ जाएं। तब देव दानवों को अलग पंक्ति में बैठाकर, कलश के द्रव्य को, जो अमृत था पर दानव उसे मदिरा समझ रहे थे, मोहिनि ने कहा "देवताओं की पंक्ति से आरम्भ करुंगी, क्युंकि आप लोग एक बार द्रव्य का पान कर ही चुके हो।" और यह कह कर देवताओं को बाँटना शुरु किया।

दानवों में एक को नशा कुछ कम सा हो गया तो वो फिर से मदिरा पीने की चाहत में चुपके से देवताओं की पंक्ति में अंतिम स्थान पर बैठ गया और उसे भी अमृत मिल गया। सूर्य और चंन्द्रमा ने इस बात की शिकायत भगवान विष्णु से कर दी। तब उन्होनें उस दानव पर छ्ल करने का दंड देने के लिये चक्र से प्रहार कर दिया और उस दानव का सर कटते ही भगदड़ मच गई लेकिन वो दानव अमृत पान के बाद भी जिवित रहा।

सभी दानव बोले "क्या हुआ ? क्युँ हुआ ? कैसे हो गया ?" श्री हरि का चक्र प्रहार दानवों को यह बतलाने के लिये था कि धोखे से इस दानव ने अनाधिकार पूर्वक द्रव्य पान किया था। जब मोहिनी बांट रही थी तो धैर्य रखना चाहिये था। तथा अमृत पान के बाद देवता अब दानवों से ज्यादा शक्तिशाली हो गये है, अत: अब दानव ईर्ष्या वश देवताओं से अकारण झगड़ा न करें। जिस दानव ने वेश बदलकर अमृत पान किया, वो गलत था ।

क्यूँकि तय मापदंडो के आधार पर अमृत पर देवताओं का अधिकार था। उसके बाद भी मोहिनी अमृत सब को बांट ही तो रही थी पंक्ति में एक तरफ से। दानवों को अब पता चला कि कलश में मदिरा नहीं, बल्कि अमृत है। तब कुछ दानव मोहिनी से कलश छिन लेने के प्रयास में आगे आये। मोहिनी बचा हुआ अमृत कलश देवराज इंद्र को दे कर चली गई। और कहा तुम लोग ही आपस में निपटारा कर लो। इधर उस दानव ने, जिसने अमृत पी लिया था, उसका सर राहु और धड़ केतु नाम से जीवित रहा और बाद में उसे छाया ग्रह के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया।

अमृत प्राप्ति के बाद वर्षों तक देवताओं का पलडा भारी रहा और वो दानवों पर भारी पड गये. इस बीच देवताओं ने पुन: तपबल से शक्ति अर्जित की तब दानव परेशान हो गये और उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि, गुरुवर हम कैसे देवताओं को हरा सकते है तब उनके गुरु ने कहा देवता अमृत पान कर चुके हैं उन्हें हराना बहुत कठिन है, और एक ही उपाय है अगर श्रेष्ठ ब्राह्मण का तेजस्वी पुत्र आपको सहायता करे तो देवताओं को हराया जा सकता है.

ऊपाय जान कर दानवों ने सोचा ब्राह्मण पुत्र भला हमारा काम क्युँ करेगा, उसके लिये हमारा साथ देना उसका अधर्म होगा और इस कार्य के लिये कोई भी तेजस्वी तो क्या पृथ्वी लोक का साधारण ब्राह्मण भी तैयार नहीं होगा. अगर हम बलपूर्वक कुछ करंगे तो श्रेष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण हमारा ही विनाश कर डालेगा और कमजोर ब्राह्मण के पास हम गये तो, देवता भी हँसी करंगे और हमारी किर्ति को भी धब्बा लगेगा.

मंथन और चिंतन के दौर शुरु हुए दानवों के और वे सब एक निर्णय पर पहुँचे कि अगर हम अपनी कन्या का दान किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को दें तो, ब्राह्मण को अवश्य स्वीकार करना ही पडेगा क्युँकि ब्राह्मण श्रेष्ठ मर्यादा का पालन करने को बाध्य है उसका पुत्र होगा, वो हमारा भांजा होगा और ब्राह्मण भी, उसे हम पालंगे क्षिक्षा दिक्षा देंगे, हमारे अनुसार चलेगा और जब मर्जी देवताओं से भिडा देंगे. तब एक दानव बोला कन्या दान वाली बात ठीक है पर दान कैसे दोगे? ये रीति तो हम दानवों की है नहीं, ब्राह्मण कन्यादान कैसे और क्युँ स्वीकार करेगा. देवताओं वाले रिवाज हम कर नहीं सकते, क्युँकि वो हमारे अनुकुल नहीं रहे हैं.

अन्य दानवों ने कहा बात तो सही है और निर्णय को सोच समझ कर के लेने के लिये मीटींग को दूसरे दिन तक के लिये टाल दिया. रात को एक दानव अपने घर में बहुत परेशान और उधेड्बुन में था कि इस बात का हल कैसे दिया जाए. वो अपने परिवार में बैठा था उसकी पत्नी और पुत्री ने चिंता का कारण पूछा, तब उसने उनको बात बतलाई.

उसकी पुत्री का नाम था केशिनी उसने कहा पिता जी दानव कन्या का विवाह श्रेष्ठ ब्राह्मण के साथ इसकी आप चिंता ना करें, मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण विश्रवा को जानती हूँ जो आर्यावृत प्रदेश के पास के जंगल में ही अपने शिष्यों के साथ आश्रम में रहते हैं. वे अपने शिष्यों को बहुत सयंम और शांति के साथ अध्ययन कराते हैं, मैंने उनको देखा है उनका ज्ञान भी बहुत श्रेष्ठ है, ऐसा मुझे लगता है क्युँकि मैं कई बार छुप छुप के उनको सुन चुकी हूँ.

अगर पिताजी आपकी आज्ञाँ हो तो मैं उनके पास जाऊँगी और उनसे प्रार्थना करूँगी कि वो मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें. मुझे पूर्ण विश्वास है वे मुझे अवश्य अपनाएंगे, मैं उनके स्वभाव से परिचित हूँ. पुत्री केशिनी की बात सुन, उसके माता पिता बहुत प्रसन्न हुए, पिता ने अपनी पुत्री को कहा कि पुत्री तु इस दानव कुल की रक्षा और भलाई के लिये सोचा, तु भाग्यशाली और धन्य है, कल मैं सभी से इस बारे में चर्चा करुंगा और तब तुम्हें अपना निर्णय दुँगा.

दूसरे दिन केशिनी के पिता ने अन्य सभी दानवों को अपनी पुत्री केशिनी द्वारा दिया गया सुझाव बतलाया और सभी बहुत खुश हुए केशिनी को आज्ञाँ दे दी गई. केशिनी अपने कार्य में सफल रही. शक्तिशाली दानव की  पुत्री होने के बाद भी उसने  नम्रता पूर्वक अपने माता पिता की चिंता दूर करने का प्रयास किया और  ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में आश्रम में स्वीकार कर लिया.

एक अच्छी पत्नी के रूप में केशिनी अपने पति की कई वर्षों तक बहुत सेवा की और एक दिन उसके पति ऋषी विश्रवा ने प्रसन्न हो कर केशिनी से वर माँगने को कहा. केशिनी ने अद्भुत और तेजस्वी पुत्रों की माँ होने का वरदान माँगा, जो देवताओं को भी पराजित करने की ताकत रखता हो. केशिनी ने एक पुत्री, पत्नी और माँ के रूप मे अपनी मर्यादा का पालन करने में पूर्णरुप से सफल रही.

अपने माता पिता की चिंता को दूर ही नहीं किया अपितु उसके बाद पति सेवा का तप भी किया समय आने पर उसने एक अद्भुत बालक को जन्म दिया जो दस सिर और बीस हाथों वाला अत्यंत तेजस्वी और बहुत सुंदर बालक था। केशिनी ने ऋषि से पूछा यह तो इतने हाथ और सर लेके पैदा हुआ है ऋषि ने कहा कि तुमने अद्भुत पुत्र की माँग की थी इसलिये अद्भुत अर्थात इस जैसा कोई और न हो, ठीक वैसा ही पुत्र हुआ है. 

  उसके पिता ने ग्यारहवें दिन अद्भुत बालक का नामकर्ण संस्कार  किया और नाम दिया रावण. रावण अपने पिता के आश्रम में बडा हुआ और बाद में उसके दो भाई कुम्भकर्ण तथा विभीषण और एक अत्यंत रुपवती बहन सूर्पनखा हुई 

 PART.11.रावण जन्म का सयोंग 

मित्रों यह पोस्ट Ramayan (Ramayan hi kiyu or koi kiu naam nahi) part.10 आपको कैसी लगी, कमेंट बॉक्स में जरूर बतायें और Ramayan (Ramayan hi kiyu or koi kiu naam nahi) part.11 की तरह की पोस्ट के लिये इस ब्लॉग को सब्सक्राइब जरूर करें और इसे शेयर भी करें।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

राम जी को वनवास ...Ramayan (Ramayan hi kiyu or koi kiu naam nahi) P16

                                  PART.16                             दोस्तों मेरा नाम कांतिलाल सुथार आज देखते है     राम  जी को वनवास  कियु हुवा था राम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए पति के साथ वन (वनवास) जाना उचित समझा। भाई लक्ष्मण ने भी राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले...

New year 2023 new offer 80% off

URKNIT Winter Wear Polyester  Sweatshirts for Men's M.R.P.: ₹1,699.00 ₹2,699.00 Business Price ₹652.40 ₹652.40  excl. GST ₹685.02 ₹685.02  incl. GST You Save: ₹1,013.98 ₹1,013.98  (59%) Inclusive of all taxes UNSPSC Code ‏ : ‎  53100000 Product Dimensions ‏ : ‎  71 x 101 x 7 cm; 500 Grams Date First Available ‏ : ‎  12 October 2022 Manufacturer ‏ : ‎  Expert Enterprises ASIN ‏ : ‎  B0BHYP52RS Item part number ‏ : ‎  39001 Country of Origin ‏ : ‎  India Manufacturer ‏ : ‎  Expert Enterprises Item Weight ‏ : ‎  500 g Item Dimensions LxWxH ‏ : ‎  71 x 101 x 7 Centimeters Net Quantity ‏ : ‎  1.00 count UNSPSC Code ‏ : ‎  53200000 Product Dimensions ‏ : ‎  71 x 101 x 7 cm; 500 Grams Date First Available ‏ : ‎  12 October 2022 Manufacturer ‏ : ‎  Expert Enterprises ASIN ‏ : ‎  B0BHYP52RS Item part number ‏ : ‎  39001 Country of Origin ‏ : ‎  India Manufacturer ‏ : ‎  Expert Enter...

राम जी के जीवन की प्रमुख घटनाएं...Ramayan (Ramayan hi kiyu or koi kiu naam nahi) P15

  PART. 15 दोस्तों मेरा नाम  कांतिलाल सुथार आज देखते है  राम  जी   के जीवन की प्रमुख घटनाएं पुराणों में श्री राम के जन्म के बारे में स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि श्री राम का जन्म वर्तमान  भारत  के  अयोध्या  नामक नगर में हुआ था। अयोध्या, जो कि भगवान राम के पूर्वजों की ही राजधानी थी। रामचन्द्र के पूर्वज रघु थे। भगवान राम बचपन से ही शान्‍त स्‍वभाव के वीर पुरूष थे। उन्‍होंने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्‍हें  मर्यादा पुरूषोत्तम राम  के नाम से जाना जाता है। उनका राज्य न्‍यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। इसलिए भारत में जब भी सुराज (अच्छे राज) की बात होती है तो रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरू वशिष्‍ठ से शिक्षा प्राप्‍त की। किशोरावस्था में गुरु विश्वामित्र उन्‍हें वन में राक्षसों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए साथ ले गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस कार्य में उनके साथ थे। ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र, जो ब्रह्म ...